Perveen Shakir Hindi Shayari
Perveen Shakir Hindi Shayari
मुझे तो जो कोई भी मिला , तुझी को पूछता रहा
बिछड़ के मुझ से , हलक़ को अज़ीज़ हो गया है तू ,
मुझे तो जो कोई भी मिला , तुझी को पूछता रहा
न जाने कौन
न जाने कौन सा आसब दिल में बसता है
के जो भी ठहरा वो आखिर मकान छोड़ गया …
मसला जब भी उठा चिरागों का
तेरी खुश्बू का पता करती है
मुझ पे एहसान हवा करती है
शब की तन्हाई में अब तो अक्सर
गुफ्तगू तुझ से रहा करती है
दिल को उस राह पे चलना ही नहीं
जो मुझे तुझ से जुदा करती है
ज़िंदगी मेरी थी लेकिन अब तो
तेरे कहने में रहा करती है
उस ने देखा ही नहीं वरना यह आँख
दिल का एहवाल कहा करती है
शाम पड़ते ही किसी शख्स की याद
कूचा-ऐ-जान में सदा करती है
दुःख हुआ करता है कुछ और बयान
बात कुछ और हुआ करती है
अब्र बरसे तो इनायत उस की
शाख़ तो सिर्फ दुआ करती है
मसला जब भी उठा चिरागों का
फैसला सिर्फ हवा करती है
इश्क़ में तुम भी सनम
तुम से कितना प्यार है दिल में उतर के देख लो
न यकीन आये तो फिर दिल बदल के देख लो
हम ने अपनी हर साँस पर नाम तेरा लिख दिया
एक तुझे पाने की खातिर खुद को पागल कर दिया
इश्क़ में तुम भी सनम हद से गुज़र के देख लो
तुम से कितना प्यार है दिल में उतर के देख लो
जाने क्यों सारे जहाँ से हो गयी है बेखबर
जब से तुम आँखूं में आये हो जागती है यह नज़र
अपनी रातों से मेरी रातें बदल के देख लो
तुम से कितना प्यार है दिल में उतर के देख लो
सूखा गुलाब मेरी किताबों में
क्यों रखूँ मैं अपने क़लम में स्याही
जब कोई अरमान दिल में मचलता ही नहीं
न जाने क्यों सभी शक करते हैं मुझ पर
जब सूखा गुलाब मेरी किताबों में मिलता ही नहीं
कशिश तो बहुत थी मेरे प्यार में
मगर क्या करू कोई पत्थर दिल पिघलता ही नहीं
अगर खुदा मिले तो उस से अपना प्यार माँगूगा
पर सुना है वो मरने से पहले किसी से मिलता नहीं
मंज़र
ज़रा देर का है मंज़र
ज़रा देर में फलक पर खिलेगा कोई सितारा
तेरी सिमट देख कर वह करेगा कोई इशारा
तेरे दिल को आएगा फिर किसी याद का बुलावा
रंग -ऐ -उम्मीद
देखना यह है की कल तुझ से मुलाक़ात के बाद
रंग -ऐ -उम्मीद खिलेगा के बिखर जाएगा
वक़्त परवाज़ करेगा के ठहर जायेगा
जीत हो जाएगी या खेल बिखर जायेगें
ख्वाब का शहर रहेगा के उजड़ जायेगा
जब भी गुज़रे हैं किसी दर्द के बाजार से
यह जो चेहरे से तुम्हें लगते हैं बीमार से हम
खूब रोये हैं लिपट कर दर -ओ -दीवार से हम
रंज हर रंग के झोली में भरे हैं हम ने
जब भी गुज़रे हैं किसी दर्द के बाजार से हम
रात वो दर्द मेरे दिल में उठा
बाद मुद्दत उसे देखा लोगो
वो ज़रा भी नहीं बदला लोगो
खुश न था मुझ से बिछड़ कर वो भी
उस के चहरे पे लिखा था लोगो
उस की आँखे भी कह देती थी
रात भर वो भी न सोया लोगो
अजनबी बन के जो गुज़रा है अभी
था किसी वक़्त में अपना लोगो
दोस्त तो खैर कौन किस का है
उस ने दुश्मन भी न समझा लोगो
रात वो दर्द मेरे दिल में उठा
सुबह तक चैन न आया लोगो
प्यास सेहराओं की फिर तेज़ हुई .
अबर फिर टूट के बरसा लोगो
अक्स -ऐ -खुशबू हूँ
अक्स -ऐ -खुशबू हूँ बिखरने से न रोके कोई
और बिखर जाऊं तो मुझे न समेटे कोई
काँप उठती हूँ मैं इस तन्हाई में
मेरे चेहरे पे तेरा नाम न पढ़ ले कोई
जिस तरह ख्वाब मेरे हो गए रेज़ा-रेज़ा
इस तरह से न कभी टूट के बिखरे कोई
मैं तो उस दिन से हरासां हूँ के जब हुक्म मिले
खुश्क फूलों को किताबों में न रखे कोई
अब तो इस राह से वो शख्स गुज़रता भी नहीं
अब किस उम्मीद से दरवाज़े से झांके कोई
कोई आवाज़ ,कोई आहात ,कोई चाप नहीं
दिल की गलिया बड़ी सुनसान हैं आये कोई
ज़ख़्म-ऐ -जिगर
उड़ने दो इन परिंदों को आज़ाद फ़िज़ाओं में
तुम्हारे होंगे अगर तो लौट आएंगे किसी रोज़
अपने सितम को देख लेना खुद ही साक़ी तुम
ज़ख़्म-ऐ -जिगर तुमको दिखाएगें किसी रोज़
मिन्नत -ऐ -सैयाद
बहुत रोया वो हम को याद कर के
हमारी ज़िन्दगी बर्बाद कर के
पलट कर फिर यहीं आ जायेंगे हम
वो देखे तो हमें आज़ाद करके
रिहाई की कोई सूरत नहीं है
मगर हाँ मिन्नत -ऐ -सैयाद कर के
बदन मेरा छुआ था उसने लेकिन
गया है रूह को आबाद कर के
हर आमिर तोल देना चाहता है
मुकर्रर-ऐ-ज़ुल्म की मीआद कर के
इश्क़ में सच्चा चाँद
पूरा दुःख और आधा चाँद हिजर की शब और ऐसा चाँद
इतने घने बादल के पीछे कितना तनहा होगा चाँद
मेरी करवट पर जाग उठे नींद का कितना कच्चा चाँद
सेहरा सेहरा भटक रहा है अपने इश्क़ में सच्चा चाँद
हुई बर्बाद मोहबत कैसे
ज़िंदगी पर किताब लिखूंगी
उस में सरे हिसाब लिखूंगी
प्यार को वक़्त गुज़री लिख कर
चाहतों को अज़ब लिखूंगी
हुई बर्बाद मोहबत कैसे
कैसे बिखरे हैं ख्वाब लिखूंगी
अपनी ख्वाहिश का तजकरा कर के
उस का चेहरा गुलाब लिखूंगी
मैं उस से जुदाई का सबब
अपनी किस्मत खराब लिखूंगी …
अक्स -ऐ -खुशबू हूँ
अक्स -ऐ -खुशबू हूँ बिखरने से न रोके कोई
और फिर बिखरु तो मुझ को न समेटे कोई .
काँप उठती हूँ मैं यह सोच के तन्हाई में
मेरे चेहरे पे तेरा नाम न पढ़ ले कोई
अब तो इस राह से वो शख्स गुज़रता भी नहीं
अब किस उम्मीद पे दरवाज़े से झाँके कोई
कोई आहट , कोई आवाज़ , कोई चाप नहीं
दिल की गालियां बड़ी सुनसान हैं आये कोई
ज़ख्म-ऐ जिगर
दर्द क्या होता है बताएंगे किसी रोज़
कमाल की ग़ज़ल है तुम को सुनाएंगे किसी रोज़
थी उन की जिद के मैं जाऊँ उन को मनाने
मुझ को यह बेहम था वो बुलाएंगे किसी रोज़
कभी भी मैंने तो सोचा भी नहीं था
वो इतना मेरे दिल को दुखाएंगे किसी रोज़
हर रोज़ शीशे से यही पूछता हूँ मैं
क्या रुख पे तबस्सुम सजाएंगे किसी रोज़
उड़ने दो इन परिंदों को आज़ाद फ़िज़ाओं में
तुम्हारे हों अगर तो लौट आएंगे किसी रोज़
अपने सितम को देख लेना खुद ही साक़ी तुम
ज़ख्म-ऐ -जिगर तुमको दिखायेगें किसी रोज़
तेरी एक निगाह
मेरे पास इतने सवाल थे मेरी उम्र में न सिमट सके
तेरे पास जितने जवाब थे तेरी एक निगाह में आ गए
गुज़रे हुए वक़्त की यादें
सजा बन जाती है गुज़रे हुए वक़्त की यादें ,
न जाने क्यों छोड़ जाने के लिए मेहरबान होते हैं लोग …
सज़ा
डूबी हैं मेरी उंगलियां खुद अपने ही लहू में ,
यह कांच के टुकड़ों को उठाने की सज़ा है ..
यह एतराफ़ भी
तेरे बदलने के बावसफ भी तुझ को चाहा है
यह एतराफ़ भी शामिल मेरे गुनाहों में है …
तो हर बंदा खुदा होता
ज़रुरत तोड़ देती है ग़रूर-ओ-बेनीआजी को
न होती कोई मजबूरी तो हर बंदा खुदा होता .
नया दर्द एक दिल में जगा कर चला गया
नया दर्द एक दिल में जगा कर चला गया
कल फिर वो मेरे शहर में आ कर चला गया
जिसे ढूंढती रही मैं लोगो की भीड़ में
मुझ से वो अपना आप छुपा कर चला गया
में उसकी खामोशी का सबब पूछती रही
वो किस्से इधर उधर के सुना कर चला गया
यह सोचती हूँ कैसे भूलूंगी अब उसे
एक शख्स वो जो मुझ को भुला कर चला गया
मुद्दतों बाद उसने आज मुझसे कोई गिला किया
चलने का हौसला नहीं रुकना मुहाल कर दिए
इश्क़ के इस सफर ने तो मुझको निढाल कर दिए
मिलते हुए दिलों के बीच और था फैसला कोई
उसने मगर बिछड़ते वक़्त और एक सवाल कर दिया
ऐ मेरी गुल ज़मीन तुझे चाहए थी इक किताब
एहले-ऐ-किताब ने मगर क्या तेरा हाल कर दिया
मुमकिन फैसलों में इक हिज्र का फैसला भी था
हम ने तो एक बात की उसने कमाल कर दिया
मेरे लबों पे मोहर थी , पर मेरे शीशा रू ने तो
शहर के शहर को मेरा वाक़िफ़ -ऐ -हाल कर दिए
चेहरा और नाम एक साथ आज न याद आ सके
वक़्त ने किस शबीह को ख्वाब -ओ-ख्याल कर दिया
मुद्दतों बाद उसने आज मुझसे कोई गिला किया
मनसब -ऐ -दिलबरी पे क्या मुझको बहाल कर दिए
बिन ज़हर पिये गुज़ारा कब था
लाज़िम था गुज़ारना ज़िन्दगी से
बिन ज़हर पिये गुज़ारा कब था
कुछ पल उसे देख सकते
अश्कों को मगर गवारा कब था
हम खुद भी जुदाई का सबब थे
उस का ही क़सूर सारा कब था
अब औरों के साथ है तो क्या दुःख
पहले भी कोई हमारा कब था
एक नाम पे ज़ख़्म खिल उठे
क़ातिल की तरफ इशारा कब था
आए हो तो रौशनी हुई है
इस बाम में कोई सितारा कब था
देखा हुआ घर था हर किसी ने
दुल्हन की तरह संवारा कब था
वो न आयेगा
जूस्तजू खोए हुए की उम्र भर करते रहे
चाँद के हमराह हम हर शब सफर करते रहे
हम ने खुद से भी छुपाया और सारे शहर से
तेरे जाने की खबर दीवार -ओ- दर करते रहे
वो न आयेगा हमें मालूम था उस शाम भी
इंतज़ार उस का मगर कुछ सोच कर करते रहे
हमसफ़र मेरा
बिखर रही है मेरी ज़ात उसे कहना
कभी मिले तो यह बात उसे कहना
वो साथ था तो ज़माना था हमसफ़र मेरा
मगर अब कोई नहीं मेरे साथ उसे कहना
उसे कहना के बिन उस के दिन नहीं कटता
सिसक सिसक के कटती है रात उसे कहना
उसे पुकारूँ के खुद ही पहुँच जाऊं उस के पास
नहीं रहे वो हालात उसे कहना
अगर वो फिर भी न लौटे तो ऐ मेहरबान क़ासिद
हमारी ज़ीस्त के हालात उसे कहना
हार जीत उस के नाम कर रहे हैं
मानती हूँ अपनी हार उस से कहना
मेरे हम-सकूँ
मेरे हम-सकूँ का यह हुक्म था के कलाम उससे मैं कम करूँ ..
मेरे होंठ ऐसे सिले के फिर उसे मेरी चुप ने रुला दिया ……